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माँ मुझे भी जीना है।
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Tuesday, 06 September 2016 12:17 PM Posted By - City Web

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  • राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आंदोलन से लेकर नीतिगत रूप से रंग भेद का मुखर विरोध होने में सफल रहा है। परन्तु जिस प्रकार वर्ण व्यवस्था की मज़बूत दीवारे आज भी समाज मे है और समाज को प्रभावीत कर रही है उसी प्रकार लिंग भेद की भावना के चलते ही भ्रूण हत्या के विरूद्ध भारत सरकार को कानून बनाने के लिए मज़बूर होना पड़ा है। काश गर्भस्थ शिशु बोल सकता, यदि वह बोलता तो शायद वह अपने शरीर को चीरतें औजारों को रोक सकता और कहता माँ, मुझे भी जीना है।‘ लेकिन शायद उस वक्त भी उसकी आवाज को वो निर्दयी माँ-बाप नहीं सुन पाते, जो रजामंदी से उसकी हत्या को अंजाम दे रहे हैं। मेरा यह प्रश्न उन सभी लोगों से है, जो कभी न कभी कन्या भ्रूण हत्या के जिम्मेदार रहे हैं। लोगों के सामने तो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं कि बालिका भी देश का भविष्य है लेकिन जब हम अपने गिरेबान में झांकते हैं तब महसूस होता है कि हम भी कहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप् से इसकी हत्या के भागी रहें हैं। यही कारण है कि आज देश में घरेलू हिंसा व भ्रूण हत्या संबधी कानून बनाने की आवश्यकता महसूस हुई है। अशिक्षित ही नहीं बल्कि ऊंचे ओहदे वाले शिक्षित परिवारों में भी गर्भ में बालिका भ्रूण का पता चलने पर अबार्शन के रूप में एक जीवत बालिका को गर्भ में ही कुचलकर उसके अस्तित्व को समाप्त किया जा रहा है। हालांकि भ्रूण का लिंग परीक्षण करना कानूनी अपराध है परन्तु फिर भी नोटों व पहचान के जोर पर कई चिकित्सकों के यहाँ चोरी-छिपे लिंग परीक्षण का अपराध किया जा रहा है। जहाँ ‘‘नारी की पूजा पर देवताओे के वास-- का गौरवशाली अध्यात्म समाज का संवर्धन करता हो, ऐसे समाज में लिंग का सर्वग्राह्य हो जाना समाज के लिए विशाक्त हो जाने के समान है सभी लोगों को अपनी रचनात्मक ऊर्जा एवं सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ते हुए लिंग भेद के विरूद्ध सरकार को मज़बूत कदम उठाने को मज़बूर करने की आवश्यकता है।

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