• Home
  • >
  • Articles
  • >
  • कहीं मंदिर बना बैठे ,कहीं मस्जिद बना बैठे
कहीं मंदिर बना बैठे ,कहीं मस्जिद बना बैठे
6257
Wednesday, 24 February 2016 08:00 PM Posted By - Nitin Kumar Sharma

Share this on your social media network

  • मैंने एक पोस्ट पढी थी,इन हालातों में मुझे वह याद आ रही है..."कहीं मंदिर बना बैठे ,कहीं मस्जिद बना बैठे । हमसे तो जात अच्छी है परिंदों की,कभी मंदिर पर जा बैठे तो कभी मस्जिद पर जा बैठे।"
    ...... हम शायद एक दुसरे से नहीं सीख सकते तो पशु पक्षिओं से ही कुछ सीख लें। जो अपना हित अहित तो पहचानते हीं हैं,और हमको भी जीने की कला सिखाते हैं। क्योकिं हमारे क्रिया कलाप तो मरने के हीं हैं। कोई भी धर्म या पंथ अशांति की शिक्षा नहीं देता है यदि देता है तो वह धर्म ही नहीं।क्योकिं धर्म तो जीओ और जीने की कला सिखाता है।यदि मरना ही है तो सच्चाई,अच्छाई और सिद्धान्तों के लिए मरो,भ्रष्टाचार,आतंकवाद, बेईमानी और बेरोजगारी के मुद्दों पर संघर्ष करो। ये चंद सियासतखोर लोग अपने स्वार्थ की बलि बेदी पर आम और भोले भाले लोगों को चढ़ा देतें हैं। इसमें शायद इन का तो भला हो जाये पर आम आदमी की स्थिति तो बद से और बदतर हो जाती है। अपना हित हम से ज्यादा कौन जान सकता है? जिस में हमारा हित हो वही असली धर्म है।
    उठो और जागो और अपना और अपनों का हित पहचानो।गलत बात किसी भी धर्म या संप्रदाय के नुमायन्दे की हो उसका विरोध होना चाहिए। उसी से शान्ति और अमन क़ायम हो सकता है।क्योंकि सत्य को पोषण और सरंक्षण और सुरक्षा मिलेगी तभी समरसता और आनंद का वातावरण बनेगा।......आचार्य मनजीत धर्मध्वज

Copyright © 2010-16 All rights reserved by: City Web