फर्ज कीजिए, आप ऑफिस में काम कर रहे हैं. आपके बगल में आपका कलीग बैठा है. काम के साथ-साथ कुछ मजेदार बातें भी हो रही हैं. फिर अचानक आपका मोबाइल रिंग करता है. दूसरी तरफ आपके बॉस की आवाज आती है. आपसे कहा जाता है कि आपको एक महीने के लिए दूसरे शहर के ब्रांच में काम करना है. वहां आपकी जरूरत है. ऐसे में आपका रिएक्शन क्या होगा? सोच कर ही डर लगता है न. उफ, कैसे होगा मैनेज?
पर कंफर्ट जोन से बाहर आना अब जरूरी है. ज्यादातर लोगों ने अपने आसपास और खुद के अंदर एक दुनिया बना ली है और उन्हें बस इसी दुनिया में रहना अच्छा लगता है. सारी चीजें तय हैं, एक रुटीन बन गया है, जिन्हें बस फॉलो करना है. कुछ नया नहीं, कोई इनोवेशन नहीं, वही पुरानी दुनिया, वही लोग और वही सोच. खुश हैं, क्योंकि सैटिस्फाइड हैं अपनी जिंदगी से. ज्यादा की ख्वाहिश नहीं. वैसे भी अगर जॉब सुकून से चल रहा हो तो वर्कप्लेस पर बदलाव की चर्चा से ही बेचैनी-सी हो जाती है. किसी भी तरह के बदलावों को हमेशा शक की नजर से देखते हैं. बदलाव के अच्छे इफेक्ट हमेशा आंखों से दूर रहते हैं. केवल तुरंत पडऩे वाले इफेक्ट के बारे में सोचते हैं और चीजें हमें कठिन लगने लगती हैं.
मैंने कई ऐसे लोगों को देखा है, जो बदलाव की बात करते ही सबसे पहले उन बदलावों की कमियां निकालने में लग जाते हैं. उनकी पहली कोशिश यही होती है कि किसी भी तरह बदलाव के प्रपोजल को रिजेक्ट कर दिया जाए, ताकि इसके चक्कर में उन्हें न बदलना पड़े. पिछले दिनों मित्र रजनीश से बात हुई. उसने बताया कि उनके संस्थान में अब सारा काम नए सॉफ्टवेयर पर होगा. कंपनी ने इसके पीछे करोड़ों रुपए खर्च किए हैं और बाहर से एक्सपर्ट बुलाकर सभी के लिए वर्कशॉप का आयोजन किया, उसके लिए तीन दिन सुबह दो घंटे जल्दी आना पड़ा. रुटीन ही खराब हो गया. 15 दिन का समय हमें दिया गया है. हम सभी को उस सॉफ्टवेयर की पूरी जानकारी रखनी होगी, ताकि डेली उसका यूज किया जा सके. मैं तो एकदम फ्रस्टेट हो गया हूं. पता नहीं, कंपनी यह सब क्यों कर रही है. सब कुछ ठीक चल रहा था. अब अलग से एक नया काम सीखो. कुछ गलती हो जाए तो बॉस की बात सुनो. बिना मतलब कंपनी ने इतनी बड़ी रकम खर्च दी. अच्छा तो यह होता कि इस रकम को इंप्लाई के बीच इंसेंटिव के रूप में बांट देती.
80 के डिकेड में रजनीश जैसी सोच ही ज्यादातर लोगों की था. यह वह समय था, जब ऑफिसों और कॉरपोरेट कल्चर में तेजी से बदलाव आ रहे थे, वर्कप्लेस पर न्यू टेक्नोलॉजी तेजी से अपनाई जा रही थी. उस वक्त लोगों का पहला सवाल ही यही था कि जब सब कुछ ठीक से चल रहा है तो चेंज की जरूरत ही क्या है? लोग खुद को इनसेक्योर महसूस कर रहे थे. जैसे-जैसे लोगों ने बदलाव के साथ खुद को न्यू टेक्नोलॉजी से अपडेट किया, वैसे-वैसे उनका परफॉरमेंस भी बेहतर होने लगा. हां, उन लोगों को जरूर परेशानी हुई, जो बदलने को तैयार नहींथे. कंपनी यदि ग्रोथ के लिए बदलाव कर रही है तो इंप्लाई का उन बदलावों के प्रति खुद को ढालना उसके अपने ग्रोथ के लिए भी जरूरी है.
दुनिया आज बड़ी तेजी से बदल रही है. एग्जिसटेंश के लिए इनोवेशन अब कंपल्सरी है. इसलिए हर फील्ड में लगातार इनोवेशन हो रहे हैं. इंप्लायर को भी ऐसे लोगों की जरूरत रहती है, जो बदलाव को स्वीकार कर सकेें. इनोवेट कर सकेें, खुद को भी और नए आइडियाज भी. नये-नये बिजनेस और सर्विसेज सामने आ रही हैं, जो हर पल इनोवेशन की डिमांड करती हैं. मतलब हर पल नए आइडियाज. यहां बदलाव का मतलब केवल स्थान परिवर्तन से ही नहींहै. बदलाव अपने अंदर, अपने काम करने के तरीके में और अपनी सोच में बदलाव. थोड़ा कठिन है, लेकिन हर नया बदलाव न केवल आपकी कैपेसिटी बढ़ाता है, बल्कि आपके लिए नए रास्ते भी खोलता है. इसलिए पूरी शिद्दत से स्वीकार करें बदलावों को. क्या पता यह आपकी लाइफ बदल दे. चलते-चलते मंजर भोपाली की यह रचना पढि़ए, शायद यह बदलाव आपको भी पसंद आए.
एक नया मोड़ देते हुए फिर फसाना बदल दीजिये,
या तो खुद ही बदल जाइए या जमाना बदल दीजिये,
तर निवाले खुशामद के जो खा रहे हैं वो मत खाइए,
आप शाहीन बन जायेंगे आब-ओ-दाना बदल दीजिये,
अहल-ए-हिम्मत ने हर दौर मैं कोह (पहाड़पपहाड़) काटे पहैं तकदीर के,
हर तरफ रास्ते बंद हैं, ये बहाना बदल दीजिये,
तय किया है जो तकदीर ने हर जगह सामने आएगा,
कितनी ही हिजरतें कीजिए या ठिकाना बदल दीजिये,
हमको पाला था जिस पेड़ ने उसके पत्ते ही दुश्मन हुए,
कह रही हैं डालियां, आशियाना बदल दीजिये!